-> ई.स.788 मे शीलादित्य 7 के समय मे ‘वलभीभंग’ हुआ. उस वक्त उसके पुत्र धरसेन (धीरसेन-धारादित्य-शीलादित्य 8) (794-830) मेवाड मे महाराणा खुमान के पास थे. उन्होने सौराष्ट्र मे आकर ¼ सौराष्ट्र जीत लिया और उसकी राजधानी वळा(वलभी के पास) बनाई. तब से मैत्रक कुल वाळा कुल के नाम से जाना गया. जो ‘वाळाकक्षेत्र’ के नाम से जाना गया और चालु हुआ मैत्रक वंश का दुसरा अध्याय ‘वाळावंश’…
-> धीरसेन के पश्चात उनके पुत्र वृतकेतु उर्फ वजेदित्य (830-860) हुए. जिन्होने तलाजा-महुआ-शिहोर-पालीताना, धंधुका के आसपास का भाल प्रदेश और घोघा तक राज्य विस्तार किया. तलाजा को राज्य का मुख्य केन्द्र बनाया. उनके बाद-
झांझरशी 1 (860-890)
जसाजी (890-910) (अपुत्र)
मुलराजजी (910-938) (अपुत्र)
मानाजी (938-960) (जसाजी-मुलराजजी-मानाजी=भाई)
मानाजी के दो पुत्र धर्मोजी और उगाजी और एक पुत्री साँयकुँवरबा थे. पुत्री का विवाह वंथली के रा’ग्रहरिपु के साथ हुआ था. जिनके पुत्र रा’कवाट हुए.
धर्मोजी (960-979) ई.स.979 मे आटकोट के युद्ध मे (रा’ग्रहरिपु/लाखा फुलानी और मुलराज सोलंकी के बीच) विरगती को प्राप्त हुए.
–> वीर उगाजी वाळा :- (979-1001)
एक और भाई धर्मोजी अपुत्र होने की वजह से तलाजा की गद्दी पर उगाजी आये. दुसरी और अपने पिता की हार का बदला लेने के लिए रा’कवाट सैन्य सज्ज करने लगे. सौराष्ट्र के वीरो को ईकठ्ठा कर सेना बनाने लगे. सेना की अगुवाई करने उसने मामा उगाजी को बुलाया और सोरठी सेना का सेनापति बनाया.
सब से पहले आटकोट के युद्ध मे मुलराज सोलंकी को मदद करने वाले आबुराज कृष्नराज परमार पर आक्रमण कर उगाजी वाला ने उसे सोरठ के दरबार मे हाजिर किया. रा’कवाट ने उसे माफ कर के छोड दिया.
उगाजी वाळा का मान-सन्मान दरबार मे और बढ गया. ईससे कुछ दरबारी ईष्या भाव रखने लगे. एक दिन दरबार मे उगाजी वाळा की शूरवीरता और सामर्थ्य की बाते चल रही थी तब किसी दरबारी ने कहा कि, “अगर रा’कवाट की सेना न हो तो उगाजी अकेले क्या कर शकते है? दोनो हाथो के बगैर ताली थोडी बजेगी?”
उगाजी ने यह बात सुन गर्व से कहा, “उगाजी एक हाथ से भी ताली बजा शकता है.”
रा’ ने मामा की बात को ‘मिथ्याभिमान’ बताया. उगाजी ने सेनापतिपद का त्याग किया और वापस तलाजा लौट आये.
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उस समय शियाल बेट मे अनंतदेव चावडा का राज था. वह काफी पराक्रमी था. उसने 36 कुलो के राजाओ को अपने यहा बंदी बना के रखा था. सिर्फ एक यादवकुल के राजा को बंदी बनाना बाकी था. उसने रा’कवाट को धोखे से बंदी बनाकर काष्ठ के पिंजरे मे केद कर लिया.
रा’कवाट ने अपने दशोंदी चारन के जरीये उगाजी को संदेश भेजा. उनके दुहे –
|| छाती उपर शेरडो, माथा माथे वाट,
भणजो वाला उगला, कट पांजरे कवाट,
तुं नी के तुं तक आव्ये ताली तलाजा धणी,
वाळा हवे वगाड्य एकल हाथे उगला ||
– हे उगाजी ! आज सोरठपति रा’कवाट कठपिंजरे मे केद है. तुम एक दिन कह रहे थे ना कि उगा वाला एक हाथ से ताली बजा शकता है तो आज मौका है. बजाओ एक हाथ से ताली |
–> उगाजी ने अनंतदेव को रा’ को छोडने का संदेश भेजा, अनंददेव ने कहा –
|| अनंत भाखे उगला, जो मुजरो करे कवाट,
पत खोवे गरनारपत, तो पाछो मेलु कवाट. ||
– उगाजी ! अगर रा’कवाट मुजरा(सलाम) करे तो मै उसे छोड दुंगा. |
इस बात को सुन क्रोधीत हो कर उगाजी ने अनंतदेव पर आक्रमण किया. उसे हराया और अनंतदेव की माँ के कहने पर उसे जीवतदान दीया.
इधर रा’कवाट को छुडाने के लिये उगाजी ने पिंजरे को लात मारकर तोड दिया, तब उसका पैर रा’ को लग गया. ईससे रा’ को बुरा लगा और अपने अपमान का बदला लेने का प्रण लिया |
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–> उगाजी वाला का घर संसार :-
जब उगाजी ने आबु पर आक्रमण कर जीता तब एक राजवंशी सरदार ने अपने पुत्री का विवाह उगाजी से किया. उनसे एक पुत्र हुआ जिसका नाम शीलाजित/शीलादित्य रखा. एक दिन जब तलाजा की कचेरी मे कविओ, दरबारीओ, भायातो और प्रजाजनो के साथ दरबार भरा हुआ था तब समाचार मिला की ‘रा’कवाट अपने अपमान का बदला लेने के लिये सेना लेकर तलाजा आ रहे है’ |
उगाजी ने हाजर दरबारी और भायातो को कहा, “तलाजा का पादर भांजे के खुन के रंग से नही रंगना चाहिये, वरना तलाजा के नाम पर कालिक पोंत जायेगी. हम अभी चलेंगे और सोरठी सेना का स्वागत छाती ठोंककर करेंगे.” |
जब उगाजी के युद्धगमन के समाचार उनकी रानी को मिले तब उनहोने उगाजी को संदेश भेजा, शृंगाररस के ये कुछ दोहे श्री मोरारीदान महियरिया के “रा’कवाट दरबार विलास” मे मिलते है-
|| पीय चालण प्यारी सूण्यो अंग ईसो अंगुलाई,
ज्युं मच्छली जल ब्हावरी, तडफ तडफ जीजाई ||
– प्रियजन के विदाय समाचार प्रियतमा(रानी) ने सुने तो वह ऐसे व्यथित हुई जैसे जल बिन मछली तडप तडप अपना जीवन खो देती है |
|| नीर झरणां नैणांह, समणां विण अवै सरस;
रात दिन रहणांट, मयणां बाणां मारसी ||
– प्रिय बिना मेरे नेत्रो से विपुल जल बह रहा है. आपके बगैर रात-दिन कामदेव बाणो से मुझे छल्ली कर देंगे ||
|| पिया विण लागे प्रगट, अत खारा आवास,
जीव हमारा जल मरे, पिव प्यारा नह पास ||
– प्रिय बिन यह गृह मुझे विषमय लगता है. मेरी आत्मा वेदना मे सुलग रही है |
–> ऐसी प्रिया की विरहवेदना लिये उगाजी रा’कवाट की सेना से युद्ध करने निकल पडता है, अपनी सेना नही ली सिर्फ कुछ भायातो और सरदारो को लेकर ही जाता है. उना के पास चित्रासर गांव के पादर मे युद्ध होता है, उगाजी के साथी कम थे लेकिन अप्रतिम शौर्य दिखाने लगे, युद्ध के तीसरे दिन उगाजी और रा’कवाट सामने आये, उगाजी ने प्रहार किया नही बल्कि भांजे का प्रहार अपनी छाती पे लिया. ई.स.1001 मे वे वीरगति को प्राप्त हुए.
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–> जब उगाजी की बहन साँयकुँवरबा (रा’कवाट की माता) अपने भाई की खांभी (पालीया-मृत्यु के बाद वीर की याद मे खडा पथ्थर- छत्री) को पुजने आई तब युद्ध भूमि मे कई खांभी को देख उन्हे पता नही चला की अपने भाई की खांभी कौन सी है?… तब वे वीरवियोग मे मरसियां(मरे हुए को याद कर गाते गीत) गाने लगती है. वेरान भूमि के वायु मे वेदना के वमल सर्जित होते है, पथ्थर की खांभी का ह्रदय भी पिगल जाता है. सब खांभीओ मे से एक खांभी झुकती है और बहन उसको पुजती है |
आज भी वह खांभी 45° कोण से झुकी हुई है.
वाळा राजपुत राजवंश के सूर्य जैसे प्रकाशित और प्रभावी वीर उगाजी वाळा ई.स.१००१ मे चित्रासर के पास वीरगति को प्राप्त हुए ||
ऐसे वीर को शत शत नमन _/\_
Divyrajsinh Sarvaiya (Dedarda)